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कविता

कोठरी

सर्वेंद्र विक्रम


एक सपने के साथ वे रह रहे थे
यहाँ कोई नहीं जानता वे कौन हैं

उन्हें अनुपात की समझ नहीं थी,
जलसों जुलूसों हड़ताल तालाबंदी के बारे में कोई राय नहीं
हिसाब किताब में हाथ तंग होने के बावजूद
बहीखाते का कोई पन्ना खोले फुसफुसाकर पूछते हैं
'वे क्या कर रहे हैं यहाँ ?'

जब जमीन से उठती है पहली बारिश की सुगंध
कोई पेड़ फुरफुराने लगता है अंदर
जब तब गाने लगते हैं
उछलती कूदती बहने लगती है
वर्षो पहले अदृश्य हो गई वह पतली सी नदी

सोचते हैं जाएँगे, वापस चले जाएँगे एक दिन
पानी के उस स्रोत और वनस्पति के पास जहाँ उनका उद्भव हुआ
पता नहीं खुद को याद दिलाते रहते हैं या देते हैं सुझाव

जप की तरह दुहराते हैं अपने आप से किया वायदा

उन्होंने नदी से पुल से सड़कों चौराहों से विदा ले ली है
सिर्फ एक छाता थोड़े से कपड़े और जूते खरीदना बाकी है
चाँदी की एक डिबिया और गानों की किताब खरीदना बाकी है
बाजार का एक आखिरी चक्कर
और बस, एक टिकट निकालना बाकी है
वे चले जाएँगे

छुपमछुपाई खेलते वे कहीं पहुँच जाते हैं
कभी देखते हैं इस पेटी में बंद बंद घुट गया है दम
कोई साक्षी नहीं है उनकी यातना का
स्वप्न और जागृति के सीमांत पर
इंजन की तेज सीटी गूँजती है कानों में
एक स्त्री के नर्म गर्म हाथों के स्पर्श से खुल जाती है नींद
शव की तरह निष्पंद लेटे आँखें बंद किए सुनते रहते हैं
कोठरी के बाहर आवाजों की आवाजाही


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